बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्रसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र : सर्ल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- गीता में प्रतिपादित स्वधर्म की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर -
स्वधर्म
गीता में स्वधर्म के महत्व को स्वीकार कर ही इसे प्रतिपादित किया गया है। गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है कि चार वर्णों के समूह की रचना गुण एवं कर्म के आधार पर मेरे द्वारा ही की गई है। जिन चार वर्णों को गीता में स्वीकार किया गया है वे हैं - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। इन चार वर्णों की व्यवस्था का आधार जन्मजात न होकर गुण एवं कर्म है तथा ईश्वर के द्वारा किया गया है। सभी प्राणी प्रकृति से उत्पन्न हुए तीन गुणों (सत्व गुण, तमोगुण तथा रजोगुण) से रहित नहीं हैं। सत्व गुण की प्रधानता वाले ब्राह्मण वर्ण के हैं, सत्व गुण तथा रजोगुण की अधिकता वाले क्षत्रिय वर्ण के हैं तथा तमोगुण और रजोगुण की अधिकता वाले वैश्य वर्ण के हैं। तमो गुण की अधिकता और रजोगुण मिश्रित वाले शूद्र वर्ण कहलाए। इस प्रकार वर्णों की रचना गुण के आधार पर हुई है।
प्रत्येक वर्ण के कर्म अलग-अलग हैं तथा इसका आधार स्वभाव-जन्य गुण है। ब्राह्मण वर्ण के स्वाभाविक कर्म हैं- शम, दम, पवित्रता, तप, शान्ति, क्षय, सरलता, अध्यात्म ज्ञान इत्यादि। क्षत्रियों के स्वाभाविक कर्म हैं धैर्म, वीरता, तेज, युद्ध से पलायन न करना, स्वाभिमान आदि। वैश्य वर्ण के स्वाभाविक कर्म हैं- कृषि, वाणिज्य एवं पशुपालन। शूद्र के स्वाभाविक कर्म हैं - सभी वर्णों की सेवा करना।
गीता के अनुसार अपने-अपने वर्णों के स्वाभाविक कर्मों को ही स्वधर्म की संज्ञा दी गई है। स्वभाव तथा गुण के अनुरूप निर्धारित विशिष्ट कर्म को ही स्वधर्म कहते हैं। प्रत्येक वर्ण का अपना निश्चित कर्म स्वधर्म है। स्वधर्म के पालन से व्यक्ति को चरम सिद्धि की प्राप्ति होती है। स्वधर्म का पालन व्यक्ति के लिए कल्याणकारी है। गीता में श्रीकृष्ण ने कहा भी है कि अपने धर्म के अनुसार विहित कर्म का सम्पादन कर्तव्य समझकर करना चाहिए। किसी भी दृष्टिकोण से अपने निर्धारित कर्म का परित्याग एवं अन्य धर्म अथवा कर्म का सम्पादन उचित नहीं है। प्रत्येक का धर्म उसके स्वभाव पर आधारित है। यदि कोई व्यक्ति अन्य धर्म को सम्पादित करता है, तो वह कर्म किसी भी दृष्टि से उचित और शुभ नहीं है, क्योंकि अन्य का धर्म किसी अन्य व्यक्ति के स्वभाव के अनुकूल नहीं होता है। परधर्म का पालन सहज नहीं है तथा ऐसा करने से कर्ता ईश्वर से सर्वथा विमुख हो जाता है। इसको ध्यान में रखकर ही गीता में कहा गया है कि उचित प्रकार से न किया गया विगुण स्वधर्म भी अच्छी तरह से किए हुए अन्य धर्म से श्रेष्ठ है। यदि व्यक्ति स्वभावानुकूल निर्धारित एवं निश्चित कर्म करे तो वह पाप का भागी नहीं बनता है।
स्वधर्म की अवधारणा का उद्देश्य : गीता में स्वधर्म की अवधारणा का प्रतिपादन निरुद्देश्य नहीं किया गया है। इसका निश्चित एवं शुभ उद्देश्य है। स्वधर्म के पालन से व्यक्ति को नाना प्रकार के उद्देश्यों की प्राप्ति होती है।
1. स्वधर्म की प्रमुख विशेषता है कि यह कर्मों की समानता को स्वीकार करता है, जिसके अनुसार सभी व्यक्तियों के कर्म समान हैं। कर्म को लेकर कहीं भी तथा किसी भी व्यक्ति में, चाहे वह किसी भी वर्ण का क्यों न हो, कोई विभेद नहीं है। यदि कोई ब्राह्मण वर्ण का व्यक्ति अपने स्वधर्म का पालन मनोयोगपूर्वक कर्तव्य समझकर करता है तो निश्चित रूप से शूद्र वर्ण का व्यक्ति ब्राह्मण वर्ण की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ एवं उच्च होगा। स्वधर्म की अवधारणा कर्म को महत्व प्रदान करती है तथा कर्म करने को प्रेरित करती है।
2. स्वधर्म की अवधारणा की दूसरी विशेषता है कि यह सामाजिक व्यवस्था एवं संरचना को अक्षुण्ण बनाये रखती है। स्वधर्म वह सेतु है जो व्यक्ति तथा समाज के बीच सम्बन्ध स्थापित करता है। स्वधर्म के पालन से ही समाज में शान्ति की स्थापना होती है, सौहार्द्र का वातावरण बनता है तथा प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने स्वधर्म का पालन करते हुए अपना चारित्रिक, वैयक्तिक तथा सामूहिक विकास करता है। स्वधर्म के पालन से समाज में समरसता का अभ्युदय होता है। यदि व्यक्ति अपनी इच्छा से कार्य करे तो ऐसी स्थिति में अराजक स्थिति पैदा हो जायेगी तथा घृणा एवं विद्वेष की भावना पनपेगी। इसके विपरीत यदि व्यक्ति स्वधर्म का पालन करता है तब समाज में शान्ति बनी रहती है तथा अराजक स्थिति उत्पन्न नहीं होती है और समाज में सुरक्षा कायम रहती है। सामाजिक व्यवस्था, समरसता एवं न्याय का आधार स्वधर्म ही है। सामाजिक व्यवस्था को स्थिर बनाए रखने के लिए स्वधर्म का पालन नितान्त आवश्यक एवं अपेक्षित है।
3. स्वधर्म की अवधारणा की तीसरी विशेषता है कि इसके पालन से आध्यात्मिकता विकसित होती है। यह सिद्धान्त कर्म को कर्तव्य समझकर करने को कहता है तथा ऐसा करने से कर्ता के 'अहं' भाव का नाश होता है। अहं की भावना से कर्म करना सर्वथा अनुचित एवं हानिकारक है। ऐसा होने से व्यक्ति में विभिन्न प्रकार की कुप्रवृत्तियाँ उत्पन्न होती हैं तथा वह अधिपतन का भागी बनता है। कर्ता के मन में काम-क्रोध, लोभ माया आदि के उत्पन्न होने से उसके आध्यात्मिकता के विकास में बाधा उत्पन्न होती है। व्यक्ति यदि अपने स्वधर्म का पालन करता है तो उसके अहं का विनाश होता है तथा आध्यात्मिक उन्नति की ओर अग्रसर होता है।
4. स्वधर्म की अवधारणा की चौथी विशेषता है कि यह गीता के मुख्य उपदेश निष्काम कर्म को अक्षुण्ण बनाये रखती है। गीता के अनुसार कर्म का परित्याग किसी भी रूप में हितकर नहीं है। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उपदेश देते हुये कहा है कि अपने-अपने कार्यों का सम्पादन ही मानव का धर्म है। स्वधर्म पालन से कभी भी पलायन नहीं करना चाहिए चाहे उसके पालन में कोई भी बाधा आ जाए। साथ ही स्वधर्म पालन के साथ-साथ अपने अधिकारों की रक्षा के लिए भी सजग रहना चाहिए। स्वधर्म कर्तव्य को कर्तव्य समझकर करने को कहता है। स्वधर्म पालन में कर्मफल की चिन्ता नहीं करनी चाहिए क्योंकि कर्म करना कर्ता के अपने वश में है परन्तु कर्मफल पर कर्ता का किसी भी प्रकार से नियन्त्रण नहीं होता है। अतः स्वधर्म मनुष्य को निष्काम कर्म करने के लिए प्रेरित करता है।
निष्कर्ष - इस प्रकार कहा जा सकता है कि गीता द्वारा प्रतिपादित स्वधर्म निष्काम कर्म का आधार है तथा व्यक्ति को अपने स्वभाव के अनुसार विहित धर्मों के पालन के लिए प्रेरित करता है। साथ ही स्वधर्म अपने-अपने धर्मों के महत्व को समझने में सहायक है।
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- प्रश्न- गीता में वर्णित स्थितप्रज्ञ की अवधारणा की विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- गीता में प्रतिपादित लोक संग्रह की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- गीता के नैतिक या आदर्श सिद्धान्त का संक्षिप्त विश्लेषण कीजिए।
- प्रश्न- गीता के निष्काम कर्म की विस्तारपूर्वक व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- गीता में वर्णित गुण की विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- गीता में प्रतिपादित स्वधर्म की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- गीता में वर्णित योग शब्द की विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- गीता में वर्णित वर्ण एवं आश्रम का विवेचन कीजिए।
- प्रश्न- स्थितप्रज्ञ के लक्षण क्या हैं? क्या मनुष्य जीवन में इस स्थिति को प्राप्त कर सकता है? संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
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- प्रश्न- गीता में प्रवृत्ति और निवृत्ति से आप क्या समझते हैं?
- प्रश्न- कर्म के सिद्धान्त का महत्व बताइए।
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- प्रश्न- कर्मयोग के सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
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- प्रश्न- पुरुषार्थ के अर्थ एवं महत्व की विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- पुरुषार्थ की अवधारणा व विशेषताएँ स्पष्ट कीजिए।
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- प्रश्न- धर्म किसे कहते हैं?
- प्रश्न- अर्थ किसे कहते हैं?
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- प्रश्न- ऐच्छिक व अनैच्छिक कर्म में अन्तर बताइए।
- प्रश्न- नैतिक निर्णय से आप क्या समझते हैं? इसका स्वरूप तथा विशेषताएँ बताइए।
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- प्रश्न- नैतिक चेतना से आप क्या समझते हैं?
- प्रश्न- नैतिक चेतना के मुख्य तत्व बताइए।
- प्रश्न- नैतिक परिस्थिति से आपका क्या तात्पर्य है?
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- प्रश्न- नैतिक निर्णय एवं तार्किक निर्णय में अंतर क्या है?
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- प्रश्न- काण्ट के अनुसार निरपेक्ष आदेश “Categorical Imprative” की व्याख्या कीजिए।
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- प्रश्न- दण्ड के विभिन्न सिद्धान्तों की व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- दण्ड का अर्थ तथा उद्देश्य क्या है?
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